Bankim Chandra Chatterjee Biography: जानिए, ‘वंदे मातरम्’ के रचयिता की जीवनी!

वंदे मातरम् का जनक: Bankim Chandra Chattopadhyay की प्रेरणादायक जीवनी! | Biography of Bankim Chandra Chatterjee | Bankim Chandra Chatterjee Books

जब भी देशभक्ति की बात होती है, तो ‘वंदे मातरम्’ की गूंज स्वतः ही कानों में पड़ती है—लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि इस अमर नारे के पीछे कौन था? इस ब्लॉग में हम आपको लेकर चलेंगे एक ऐसे साहित्यिक योद्धा की जीवन यात्रा पर, जिनकी लेखनी ने क्रांति की ज्वाला भड़काई। Bankim Chandra Chatterjee Biography न केवल एक लेखक की कहानी है, बल्कि उस विचारक की दास्तां है जिसने भारतीय समाज को अपनी सोच और शब्दों से झकझोर दिया। बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय, जिन्होंने ‘साहित्य सम्राट’ की उपाधि पाई, ने अपनी रचनाओं के ज़रिये न सिर्फ साहित्य को समृद्ध किया बल्कि स्वतंत्रता आंदोलन को भी दिशा दी। यह लेख आपको उनके जीवन की अनसुनी कहानियों, प्रेरक विचारों और ऐतिहासिक योगदानों से रूबरू कराएगा। पढ़ते रहिए, क्योंकि यह सिर्फ जीवनी नहीं, एक क्रांतिकारी सफर है!

this is te image of Bankim Chandra Chatterjee Biography

प्रारंभिक जीवन और पारिवारिक पृष्ठभूमि

बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय का जन्म 26 या 27 जून 1838 को बंगाल (वर्तमान पश्चिम बंगाल) के उत्तर 24 परगना जिले के नैहाटी के कंथलपारा गांव में हुआ था। वे एक रूढ़िवादी बंगाली ब्राह्मण परिवार में तीन भाइयों में सबसे छोटे थे। उनके पिता, यादव चंद्र चट्टोपाध्याय, एक सरकारी अधिकारी थे, जो बाद में मिदनापुर के डिप्टी कलेक्टर बने। उनकी माता, दुर्गादेवी, ने एक परंपरागत घरेलू माहौल बनाए रखा। उनका परिवार मूल रूप से हुगली जिले के देशमुखो गांव से था।

बंकिम का पालन-पोषण एक विद्वतापूर्ण माहौल में हुआ, जहां शिक्षा और बौद्धिक चर्चाओं को महत्व दिया जाता था। उनके बड़े भाई, संजीब चंद्र चट्टोपाध्याय, भी एक उपन्यासकार थे और अपनी पुस्तक पलामू के लिए प्रसिद्ध थे। परिवार के शिक्षा पर जोर ने बंकिम की बौद्धिक जिज्ञासा और साहित्यिक आकांक्षाओं को आकार दिया।

शिक्षा और प्रारंभिक प्रभाव

बंकिम ने अपनी शिक्षा हुगली कॉलेजिएट स्कूल (तब सरकारी जिला स्कूल) से शुरू की, जहां उन्होंने अपनी पहली कविता लिखी। उनकी लेखन प्रतिभा बचपन से ही स्पष्ट थी। बाद में उन्होंने हुगली मोहसिन कॉलेज और फिर कोलकाता के प्रेसीडेंसी कॉलेज में पढ़ाई की, जो उस समय का एक प्रतिष्ठित संस्थान था। 1857 में, बंकिम, कलकत्ता विश्वविद्यालय के पहले दो स्नातकों में से एक बने, जो उनकी शैक्षणिक प्रतिभा को दर्शाता है। उन्होंने 1869 में कानून की डिग्री भी प्राप्त की।

बंकिम की शिक्षा ने उन्हें भारतीय और पश्चिमी साहित्यिक परंपराओं से परिचित कराया। वे 14वीं और 15वीं शताब्दी के गौड़ीय वैष्णववाद से गहरे प्रभावित थे, साथ ही शेक्सपियर और कालिदास जैसे पश्चिमी और भारतीय लेखकों से भी। इन सांस्कृतिक प्रभावों ने उनकी अनूठी साहित्यिक शैली को आकार दिया, जिसमें भारतीय संवेदनाएं और आधुनिक कथात्मक तकनीकें शामिल थीं।

सामाजिक सेवा में योगदान

अपने पिता के नक्शेकदम पर चलते हुए, बंकिम 1858 में अधीनस्थ कार्यकारी सेवा में शामिल हुए और जेस्सोर में डिप्टी मजिस्ट्रेट नियुक्त हुए। बाद में, 1863 में बहरामपुर के विलय के बाद, वे डिप्टी मजिस्ट्रेट और डिप्टी कलेक्टर बने। वे आरामबाग उपखंड के पहले प्रभारी भी थे। बंगाल के ग्रामीण क्षेत्रों में उनके अनुभव, विशेष रूप से गर मंदारन के एक किले के खंडहरों ने, उनके उपन्यास दुर्गेशनंदिनी (1865) के लिए पृष्ठभूमि प्रदान की।

बंकिम का सिविल सेवा करियर 1891 में समाप्त हुआ, जब वे सरकारी सेवा से सेवानिवृत्त हुए। उनकी सेवाओं के लिए उन्हें 1894 में कंपेनियन ऑफ द मोस्ट एमिनेंट ऑर्डर ऑफ द इंडियन एम्पायर (CMEOIE) और 1891 में राय बहादुर की उपाधि से सम्मानित किया गया। हालांकि, उनकी साहित्यिक रचनाओं ने ही उनकी सच्ची विरासत को परिभाषित किया।

साहित्यिक शुरुआत

बंकिम ने अपने साहित्यिक जीवन की शुरुआत कविता लेखन से की, जो ईश्वर चंद्र गुप्ता के साप्ताहिक समाचार पत्र संगबाद प्रभाकर में प्रकाशित हुईं। उनकी पहली कथा साहित्य की ओर रुख करने की कोशिश एक बंगाली उपन्यास थी, जिसे उन्होंने एक पुरस्कार के लिए प्रस्तुत किया था, लेकिन वे जीत नहीं पाए और वह उपन्यास कभी प्रकाशित नहीं हुआ। उनका पहला प्रकाशित उपन्यास राजमोहन की पत्नी (1864) था, जो अंग्रेजी में लिखा गया था, संभवतः उनके पहले बंगाली उपन्यास का अनुवाद। हालांकि, दुर्गेशनंदिनी (1865), उनका पहला बंगाली उपन्यास, ने उन्हें आधुनिक बंगाली कथा साहित्य का अग्रदूत बनाया।

दुर्गेशनंदिनी एक रोमांटिक उपन्यास था, जो पारंपरिक काव्य-प्रधान भारतीय लेखन से अलग था और इसने नई गद्य शैली पेश की। यह बंगाली साहित्य में पहला प्रमुख उपन्यास था, जिसने बंकिम के शानदार करियर की नींव रखी। उनकी प्रारंभिक रचनाओं ने ऐतिहासिक और सांस्कृतिक तत्वों को आकर्षक कहानियों में बुनने की उनकी क्षमता को दर्शाया।

प्रमुख साहित्यिक कृतियाँ

बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय ने बंगाली में चौदह उपन्यास लिखे, साथ ही कई निबंध, कविताएँ और व्यंग्यात्मक व आलोचनात्मक रचनाएँ। उनके उपन्यास ऐतिहासिक कथा से लेकर सामाजिक नाटकों तक थे, जिन्होंने आधुनिक भारतीय उपन्यास के विकास में योगदान दिया। उनकी प्रमुख रचनाओं का अवलोकन इस प्रकार है:

शीर्षक प्रकाशन वर्ष शैली विवरण
दुर्गेशनंदिनी 1865 रोमांटिक/ऐतिहासिक बंगाल के एक किले की पृष्ठभूमि में सेट, यह बंगाली साहित्य का पहला प्रमुख उपन्यास है। यह प्रेम त्रिकोण और राजनीतिक साजिश की कहानी है।
कपालकुंडला 1866 रोमांटिक शेक्सपियर की मिरांडा और कालिदास की शकुंतला से प्रेरित, यह कोंटाई के दरियापुर में सेट एक रहस्यमयी नायिका की रोमांटिक कहानी है।
मृणालिनी 1869 ऐतिहासिक रोमांस ऐतिहासिक संदर्भ में सेट, यह उपन्यास सांस्कृतिक और राष्ट्रीय गर्व को प्रेरित करता है।
विषबृक्ष 1873 सामाजिक ड्रामा बंगदर्शन में धारावाहिक रूप में प्रकाशित, यह प्रेम, विश्वासघात और नैतिकता की कहानी है, जिसे पंच पत्रिका ने अनुशंसित किया।
इंदिरा 1873 (संशोधित 1893) सामाजिक/रोमांटिक एक सामाजिक और रोमांटिक कहानी, जो बाद में संशोधित और विस्तारित की गई।
जुगलंगुरिया 1874 सामाजिक/रोमांटिक सामाजिक और रोमांटिक थीम्स पर आधारित एक उपन्यास।
राधारानी 1876 (विस्तारित 1893) रोमांटिक रोमांटिक थीम्स पर आधारित, बाद में विस्तारित एक कहानी।
चंद्रशेखर 1877 रोमांटिक/ड्रामा 18वीं शताब्दी में सेट, इसमें समानांतर कथानक हैं जो रोमांस और ड्रामे को मिश्रित करते हैं।
रजनी 1877 आत्मकथात्मक/रोमांटिक विल्की कॉलिन्स की ए वूमन इन व्हाइट से प्रेरित, यह एक अंधी लड़की की कहानी है।
कृष्णकांतर उइल 1878 सामाजिक ड्रामा विरासत और पारिवारिक संघर्ष पर आधारित, यह पश्चिमी शैली का एक उपन्यास है।
कमलाकांतेर दप्तर 1875 (विस्तारित 1885) हास्य/व्यंग्य हास्य और व्यंग्यपूर्ण रेखाचित्रों का संग्रह, जो डी क्विंसी के कन्फेशन्स ऑफ एन इंग्लिश ओपियम-ईटर की शैली में है।
राजसिंह 1882 (संशोधित 1893) ऐतिहासिक कथा भारत के अतीत को जीवंत करने वाला एक ऐतिहासिक उपन्यास।
आनंदमठ 1882 राजनीतिक/ऐतिहासिक हिंदू संन्यासियों की ब्रिटिश सेना के खिलाफ लड़ाई की कहानी, जिसमें वंदे मातरम गीत है, जो स्वतंत्रता आंदोलन का प्रतीक बना।
देवी चौधुरानी 1884 सामाजिक/ऐतिहासिक एक महिला की कहानी जो डाकुओं की नेता बनती है, सशक्तिकरण और प्रतिरोध का प्रतीक।
कमलाकांता 1885 हास्य/व्यंग्य हास्य और सामाजिक टिप्पणी का संग्रह, कमलाकांतेर दप्तर का विस्तार।
सीताराम 1886 ऐतिहासिक/रोमांटिक एक हिंदू सरदार की कहानी, जो मुस्लिम शासन के खिलाफ विद्रोह करता है।
मुचिराम गुरेर जीवनचरित जीवनी/हास्य मुचिराम गुर के जीवन पर आधारित एक जीवनी और हास्यपूर्ण रचना।
कृष्ण चरित्र 1886 धार्मिक टिप्पणी कृष्ण के जीवन और चरित्र पर आधारित धार्मिक और दार्शनिक रचना।
धर्मतत्व 1888 धार्मिक टिप्पणी धर्म और नैतिकता के सिद्धांतों पर आधारित निबंध।
देवतत्व मरणोपरांत धार्मिक टिप्पणी दैवीयता के सिद्धांतों पर आधारित, मरणोपरांत प्रकाशित।
श्रीमद्भगवद्गीता 1902 (मरणोपरांत) धार्मिक टिप्पणी भगवद्गीता के चौथे अध्याय के 19वें श्लोक तक की टिप्पणी।
ललिता ओ मानस 1858 कविता संग्रह बंकिम का प्रारंभिक कविता संग्रह।
लोक रहस्य 1874 (विस्तारित 1888) निबंध समाज पर आधारित निबंधों का संग्रह।
बिजनान रहस्य 1875 निबंध विज्ञान पर आधारित निबंधों का संग्रह।
विचित्र प्रबंध 1876 (खंड 1), 1892 (खंड 2) निबंध मिश्रित निबंधों का संग्रह।
साम्य 1879 निबंध समानता पर आधारित निबंध।

बंगदर्शन और साहित्यिक प्रभाव

अप्रैल 1872 में, बंकिम ने बंगदर्शन नामक एक मासिक साहित्यिक पत्रिका शुरू की, जो उनके उपन्यासों, निबंधों, कहानियों और समीक्षाओं के लिए एक मंच बन गई। इस पत्रिका ने आधुनिक बंगाली साहित्य को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, नए लेखकों को प्रोत्साहित किया और बौद्धिक प्रवचन को बढ़ावा दिया। विषबृक्ष और आनंदमठ जैसे कार्य पहले बंगदर्शन में धारावाहिक रूप में प्रकाशित हुए, जिससे व्यापक पाठक वर्ग प्राप्त हुआ। हालांकि चार साल बाद पत्रिका बंद हो गई, इसे बाद में उनके भाई संजीब चंद्र ने पुनर्जनन किया।

बंकिम के निबंध, जैसे शकुंतला, मिरांडा एबॉन्ग देसदेमोना (1873), भारतीय और पश्चिमी साहित्य के तुलनात्मक विश्लेषण में अग्रणी थे। उनकी रचनाओं ने पारंपरिक काव्य रूपों से हटकर गद्य को कहानी कहने और सामाजिक टिप्पणी के लिए एक शक्तिशाली माध्यम के रूप में पेश किया। उनकी भारतीय सांस्कृतिक विरासत को आधुनिक कथात्मक तकनीकों के साथ मिश्रित करने की क्षमता ने पूरे भारत में लेखकों को प्रेरित किया।

दार्शनिक और धार्मिक योगदान

बंकिम भारतीय दर्शन, विशेष रूप से भगवद्गीता और सांख्य दर्शन से गहरे प्रभावित थे। उनकी भगवद्गीता पर टिप्पणी, जो 1902 में मरणोपरांत प्रकाशित हुई, में चौथे अध्याय के 19वें श्लोक तक की व्याख्या शामिल थी। सांख्य दर्शन पर उनके एक लंबे निबंध में, उन्होंने तर्क दिया कि बौद्ध धर्म सहित भारत की अधिकांश धार्मिक मान्यताओं का आधार सांख्य दर्शन में निहित है। हालांकि, उन्होंने इस दर्शन की आलोचना की क्योंकि यह व्यक्तिगत वैराग्य (त्याग) पर जोर देता था, न कि सामाजिक और राजनीतिक शक्ति पर, जो उनके मजबूत, एकजुट समाज के विश्वास को दर्शाता है।

उनकी धार्मिक रचनाएँ, जैसे कृष्ण चरित्र (1886), धर्मतत्व (1888), और देवतत्व (मरणोपरांत प्रकाशित), ने आध्यात्मिकता और राष्ट्रवाद को मिश्रित करते हुए, दैवीयता और नैतिकता के सिद्धांतों की खोज की। आनंदमठ में भारत को भारत माता के रूप में चित्रित करने ने उनके राष्ट्रवाद को हिंदू स्वर दिया, जिसने स्वतंत्रता सेनानियों की पीढ़ियों को प्रेरित किया।

राष्ट्रवाद और सामाजिक सुधार

बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय एक धार्मिक राष्ट्रवादी थे, जिन्होंने बंगाल की सांस्कृतिक और आध्यात्मिक पहचान को पुनर्जनन करने की कोशिश की। उनका मानना था कि वास्तविक सुधार केवल हिंदू धर्म के आंतरिक सुधार के माध्यम से राष्ट्रीय चरित्र को बदलकर ही प्राप्त किया जा सकता है। उनके उपन्यास, विशेष रूप से आनंदमठ, ने बंगालियों में गर्व और आत्मविश्वास की भावना जगाई, उन्हें अपनी विरासत को अपनाने और औपनिवेशिक उत्पीड़न का विरोध करने के लिए प्रोत्साहित किया।

बंकिम की रचनाओं ने अनुशीलन समिति जैसे क्रांतिकारी संगठनों को प्रेरित किया, जिसे प्रमथनाथ मित्र ने शुरू किया था, और इसका नाम और दर्शन बंकिम के अनुशासन और कड़ी मेहनत पर जोर से लिया गया था। वंदे मातरम गीत स्वदेशी आंदोलन के दौरान प्रतिरोध का प्रतीक बन गया, और बिपिन चंद्र पाल की बंदे मातरम पत्रिका ने इसकी विरासत को आगे बढ़ाया।

बंकिम का एक मजबूत, स्वतंत्र बंगाल का दृष्टिकोण उनकी इस धारणा में निहित था कि सांस्कृतिक पुनरुत्थान राजनीतिक प्रगति के लिए आवश्यक है। उन्होंने रूढ़िवादी सुधारकों, जो कठोर परंपराओं से बंधे थे, और प्रगतिशील सुधारकों, जो पश्चिम का अंधानुकरण कर रहे थे, के बीच के विभाजन को संतुलित करने की कोशिश की, और भारत की विरासत का सम्मान करते हुए आधुनिकता को अपनाने की वकालत की।

व्यक्तिगत जीवन और मजेदार किस्से

बंकिम की बुद्धि और हास्य प्रसिद्ध थे, जैसा कि उनके आध्यात्मिक नेता रामकृष्ण परमहंस के साथ उनके संबंधों में देखा गया। बंकिम उच्च शिक्षित और पश्चिमी विचारों से प्रभावित थे, जबकि रामकृष्ण पारंपरिक आध्यात्मिकता में निहित थे, फिर भी दोनों के बीच गर्मजोशी भरा रिश्ता था। एक प्रसिद्ध बातचीत में, रामकृष्ण ने मजाक में बंकिम से पूछा कि उन्हें किस चीज ने “झुका” दिया (बंकिम का अर्थ “टेढ़ा” या “झुका हुआ” हो सकता है)। बंकिम ने मजाक में जवाब दिया कि यह “अंग्रेज के जूते की लात” थी, जो ब्रिटिश शासन की उनकी आलोचना का संकेत था।

बंकिम का हास्य उनकी व्यंग्यपूर्ण रचनाओं, जैसे कमलाकांतेर दप्तर, में भी झलकता है, जिसमें सामाजिक टिप्पणी के साथ हास्य का मिश्रण है। गंभीर और हल्के-फुल्के कार्यों के साथ पाठकों को आकर्षित करने की उनकी क्षमता ने उनकी बहुमुखी प्रतिभा को दर्शाया।

विरासत और सम्मान

बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय को व्यापक रूप से “आधुनिक भारतीय उपन्यास का जनक” माना जाता है। बंगाली साहित्य में उनके योगदान ने भारतीय उपन्यास को एक प्रमुख साहित्यिक शैली के रूप में स्थापित किया। उनकी रचनाओं ने न केवल मनोरंजन किया बल्कि सांस्कृतिक और राष्ट्रीय जागृति को भी प्रेरित किया, जिसने रवींद्रनाथ टैगोर और श्री अरबिंदो जैसे लेखकों को प्रभावित किया।

रवींद्रनाथ टैगोर ने बंकिम की प्रशंसा में उन्हें सव्यसाची (दोनों हाथों से समान रूप से कुशल) कहा, जो उनकी उत्कृष्ट साहित्य रचना करने और युवा लेखकों का मार्गदर्शन करने की क्षमता को दर्शाता है। श्री अरबिंदो ने उन्हें “द्रष्टा और राष्ट्र-निर्माता” के रूप में वर्णित किया, जो भारत की राष्ट्रवादी चेतना को आकार देने में उनकी भूमिका को मान्यता देता है।

पश्चिम बंगाल सरकार उनकी विरासत को बंकिम मेमोरियल पुरस्कार के साथ सम्मानित करती है, जो बंगाली कथा साहित्य में योगदान के लिए सर्वोच्च पुरस्कार है। उनके उपन्यासों का उनके साहित्यिक और ऐतिहासिक महत्व के लिए अध्ययन और उत्सव मनाया जाता है।

भारतीय राष्ट्रवाद पर प्रभाव

बंकिम की आनंदमठ और वंदे मातरम ने भारत के स्वतंत्रता संग्राम पर गहरा प्रभाव डाला। यह गीत स्वदेशी आंदोलन के दौरान व्यापक रूप से गाया गया, जिसने ब्रिटिश शासन के खिलाफ प्रतिरोध को प्रेरित किया। हालांकि आनंदमठ संन्यासी विद्रोह पर आधारित था, लेकिन इसमें हिंदू मिलिशिया की स्वतंत्रता के लिए लड़ाई ने अनुशीलन समिति जैसे क्रांतिकारी समूहों को प्रेरित किया।

भगवद्गीता की उनकी पुनर्व्याख्या ने भी राष्ट्रवादी विचारधारा को प्रभावित किया, जिसमें कर्तव्य और कर्म पर जोर दिया गया। उनकी रचनाओं ने भारत की सांस्कृतिक और ऐतिहासिक विरासत में गर्व की भावना जगाई, जिसने भारतीयों को एक स्वतंत्र और एकजुट राष्ट्र की कल्पना करने के लिए प्रोत्साहित किया।

निष्कर्ष: Bankim Chandra Chatterjee Biography

बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय का जीवन और कार्य परंपरा और आधुनिकता, आध्यात्मिकता और राष्ट्रवाद के बीच एक सेतु का प्रतीक हैं। एक उपन्यासकार, कवि, निबंधकार और पत्रकार के रूप में, उन्होंने बंगाली साहित्य को बदल दिया और लेखकों व स्वतंत्रता सेनानियों की एक पीढ़ी को प्रेरित किया। उनका प्रतिष्ठित गीत वंदे मातरम और उपन्यास आनंदमठ भारत की सांस्कृतिक और राजनीतिक जागृति के स्थायी प्रतीक बने हुए हैं। साहित्य सम्राट के रूप में बंकिम की विरासत प्रेरणा देती रहती है, जो हमें शब्दों की शक्ति की याद दिलाती है, जो एक राष्ट्र की पहचान और नियति को आकार दे सकती है।

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