नाथूराम गोडसे की जीवनी: एक विचारक या अपराधी? जानिए पूरी कहानी! | Gopal Godse | Nathuram Godse Last Words | Nathuram Vinayak Godse | Nathuram Godse Biography | Nathuram Godse Wife | Nathuram Godse Son
नाथूराम गोडसे — एक नाम, जिसने भारतीय इतिहास को झकझोर कर रख दिया। क्या वह सिर्फ एक कट्टरपंथी था, या एक ऐसा विचारक जो अपने समय से आगे सोच रहा था? Biography of Nathuram Godse न केवल एक व्यक्ति की जीवन यात्रा है, बल्कि यह उन घटनाओं और विचारों की भी परतें खोलती है, जो आज भी भारत की राजनीति और समाज को प्रभावित करती हैं। बचपन में गहराई से धार्मिक संस्कारों से जुड़े गोडसे, कैसे एक साधारण युवक से बदलकर गांधी के सबसे बड़े आलोचक बन गए? और आखिर ऐसा क्या हुआ कि उन्होंने अहिंसा के पुजारी महात्मा गांधी की हत्या कर दी? क्या यह एक क्रूर अपराध था या उनके दृष्टिकोण से एक वैचारिक युद्ध? इस लेख में हम गोडसे के जीवन की अनसुनी कहानियों, उनके दृष्टिकोण और उस ऐतिहासिक घटना की तह तक पहुँचेंगे जिसने भारत को हमेशा के लिए बदल दिया।
प्रारंभिक जीवन और पारिवारिक पृष्ठभूमि
नाथूराम गोडसे का जन्म 19 मई 1910 को महाराष्ट्र के बारामती में एक मराठी चितपावन ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके पिता, विनायक वामनराव गोडसे, डाक विभाग में कर्मचारी थे, और उनकी माता का नाम लक्ष्मी (जिन्हें गोदावरी के नाम से भी जाना जाता था) था। जन्म के समय उनका नाम रामचंद्र रखा गया। गोडसे परिवार में एक अंधविश्वास था कि उनके पुत्रों पर श्राप है, क्योंकि उनके तीन बड़े बेटों की मृत्यु हो चुकी थी। इस डर से रामचंद्र को उनके शुरुआती वर्षों में लड़की की तरह पाला गया। उनकी नाक छिदवाई गई और उन्हें नाक में अंगूठी (मराठी में “नाथ”) पहनाई गई, जिसके कारण उन्हें “नाथूराम” नाम मिला।
गोडसे ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा बारामती के स्थानीय स्कूल में पांचवीं कक्षा तक पूरी की। इसके बाद, बेहतर शिक्षा के लिए उन्हें पुणे में अपनी चाची के पास भेज दिया गया, जहां उन्होंने अंग्रेजी माध्यम के स्कूल में पढ़ाई की। हालांकि, उन्होंने हाई स्कूल की पढ़ाई पूरी नहीं की और जल्द ही हिंदू राष्ट्रवादी संगठनों की ओर आकर्षित हो गए।
हिंदू राष्ट्रवाद के साथ जुड़ाव
नाथूराम गोडसे के राजनीतिक और वैचारिक जीवन का आधार हिंदू राष्ट्रवाद था। 1932 में, वे सांगली (महाराष्ट्र) में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) में एक बौद्धिक कार्यवाह के रूप में शामिल हुए। आरएसएस एक दक्षिणपंथी हिंदू संगठन था, जो हिंदू संस्कृति और राष्ट्रवाद को बढ़ावा देने के लिए जाना जाता था। इसके साथ ही, गोडसे हिंदू महासभा के भी सक्रिय सदस्य थे, जो एक और हिंदू राष्ट्रवादी संगठन था। वे अपने गुरु विनायक दामोदर सावरकर के विचारों से गहराई से प्रभावित थे, जिन्होंने हिंदुत्व की विचारधारा को प्रतिपादित किया था।
गोडसे ने अपने विचारों को प्रचारित करने के लिए समाचार पत्रों में लेख लिखे। उन्होंने और आरएसएस के तत्कालीन प्रमुख एम.एस. गोलवलकर ने बाबाराव सावरकर की पुस्तक “राष्ट्र मीमांसा” का अंग्रेजी में अनुवाद किया। हालांकि, जब गोलवलकर ने इस अनुवाद का पूरा श्रेय ले लिया, तो गोडसे के साथ उनके मतभेद हो गए। 1940 के दशक की शुरुआत में, गोडसे ने अपना संगठन “हिंदू राष्ट्र दल” स्थापित किया, लेकिन वे आरएसएस और हिंदू महासभा के साथ जुड़े रहे।
1946 में, गोडसे ने दावा किया कि उन्होंने भारत के विभाजन के मुद्दे पर आरएसएस छोड़ दिया और हिंदू महासभा में पूरी तरह शामिल हो गए। हालांकि, ऐतिहासिक स्रोत और उनके परिवार के बयान इस दावे का खंडन करते हैं। जनवरी 2020 में “द कारवां” पत्रिका की एक जांच के अनुसार, गोडसे को अपनी मृत्यु तक आरएसएस के रिकॉर्ड में एक सदस्य के रूप में सूचीबद्ध किया गया था। उनके भाई गोपाल गोडसे ने भी कहा कि नाथूराम ने कभी आरएसएस नहीं छोड़ा और वह इसके साथ-साथ हिंदू महासभा में भी सक्रिय रहे।
महात्मा गांधी के साथ वैचारिक मतभेद
नाथूराम गोडसे के जीवन का सबसे विवादास्पद पहलू महात्मा गांधी के साथ उनके वैचारिक मतभेद थे। गोडसे का मानना था कि गांधी की नीतियां, विशेष रूप से हिंदू-मुस्लिम एकता और अहिंसा पर उनका जोर, हिंदुओं के हितों के खिलाफ थीं। वे गांधी को भारत के 1947 के विभाजन के लिए जिम्मेदार मानते थे, क्योंकि उनका दावा था कि गांधी ने ब्रिटिश भारत में मुसलमानों की राजनीतिक मांगों का समर्थन किया था।
गोडसे विशेष रूप से गांधी के उस उपवास से नाराज थे, जिसके माध्यम से उन्होंने सरकार पर पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपये देने के लिए दबाव डाला था। गोडसे का मानना था कि यह निर्णय भारत के हितों के खिलाफ था और इससे मुस्लिम समुदाय को अनुचित लाभ मिला। उनके विचारों में हिंदू राष्ट्रवाद की कट्टरता साफ झलकती थी, और वे गांधी को हिंदू समुदाय के लिए खतरा मानते थे।
गांधी की हत्या के प्रयास
नाथूराम गोडसे ने महात्मा गांधी की हत्या का प्रयास पहली बार 1944 में किया था। मई 1944 में, उन्होंने पंचगनी में एक प्रार्थना सभा के दौरान 15-20 युवकों के समूह के साथ गांधी पर हमला करने की कोशिश की, लेकिन भीड़ ने उन्हें रोक दिया। गांधी की नीति के अनुसार, उनके खिलाफ कोई आपराधिक मामला दर्ज नहीं किया गया, और उन्हें रिहा कर दिया गया।
सितंबर 1944 में, गोडसे ने फिर से सेवाग्राम से मुंबई जाते समय गांधी के रास्ते को अवरुद्ध किया। इस बार उनके पास एक खंजर था, और उन्होंने गांधी को जान से मारने की धमकी दी। एक बार फिर, गांधी की नीति के कारण उन्हें रिहा कर दिया गया।
30 जनवरी 1948: गांधी की हत्या
30 जनवरी 1948 को, नाथूराम गोडसे ने तीसरे और अंतिम प्रयास में महात्मा गांधी की हत्या कर दी। यह घटना नई दिल्ली के बिड़ला हाउस में हुई, जहां गांधी एक बहु-धार्मिक प्रार्थना सभा के लिए जा रहे थे। शाम 5:05 बजे, गोडसे भीड़ से निकलकर गांधी के सामने आए और उनकी छाती में तीन गोलियां दाग दीं। गांधी तुरंत गिर पड़े, और कुछ ही मिनटों में उनकी मृत्यु हो गई।
गोडसे ने भागने की कोशिश नहीं की। उन्हें तुरंत हर्बर्ट रेनर जूनियर, जो उस समय वहां मौजूद अमेरिकी दूतावास के उप-वाणिज्यदूत थे, ने पकड़ लिया। रेनर ने गोडसे को कंधों से पकड़कर सैन्य कर्मियों को सौंप दिया, जिन्होंने उन्हें निहत्था कर पुलिस के हवाले कर दिया। गोडसे ने बाद में बताया कि वह इस बात से आश्चर्यचकित थे कि उनकी योजना कितनी आसानी से सफल हो गई।
गोडसे अकेले नहीं थे। उन्होंने नारायण आप्टे और छह अन्य लोगों के साथ मिलकर इस हत्या की साजिश रची थी। इस साजिश में शामिल अन्य लोगों को भी गिरफ्तार किया गया।
मुकदमा और सजा
गांधी की हत्या के बाद, गोडसे और उनके सह-षड्यंत्रकारियों पर शिमला के पीटरहॉफ में पंजाब उच्च न्यायालय में मुकदमा चलाया गया। यह मुकदमा एक साल से अधिक समय तक चला। 8 नवंबर 1949 को, गोडसे और नारायण आप्टे को मौत की सजा सुनाई गई, जबकि अन्य छह सह-षड्यंत्रकारियों को आजीवन कारावास की सजा दी गई।
गांधी के दो बेटों, मणिलाल गांधी और रामदास गांधी, ने गोडसे की सजा को कम करने की अपील की थी, लेकिन भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू, उप-प्रधानमंत्री वल्लभभाई पटेल और गवर्नर-जनरल चक्रवर्ती राजगोपालाचारी ने इस अपील को ठुकरा दिया। 15 नवंबर 1949 को, गोडसे को अंबाला सेंट्रल जेल में फांसी दे दी गई।
हत्या के परिणाम
महात्मा गांधी की हत्या ने पूरे भारत में शोक की लहर दौड़ा दी। लाखों लोगों ने गांधी के निधन पर दुख व्यक्त किया। इस घटना के बाद हिंदू महासभा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की कड़ी निंदा हुई। आरएसएस पर अस्थायी रूप से प्रतिबंध लगा दिया गया, क्योंकि सरकार का मानना था कि इस संगठन की गतिविधियों ने गांधी की हत्या के लिए माहौल तैयार किया था।
आरएसएस ने बार-बार गोडसे के साथ अपने संबंधों से इनकार किया और दावा किया कि गोडसे ने 1930 के दशक में संगठन छोड़ दिया था। हालांकि, गोडसे के भाई गोपाल गोडसे ने कहा कि नाथूराम और उनके सभी भाई आरएसएस के सक्रिय सदस्य थे। गोपाल ने 1994 में “फ्रंटलाइन” पत्रिका को दिए एक साक्षात्कार में कहा, “हम सभी भाई आरएसएस में थे। नाथूराम एक बौद्धिक कार्यवाह थे। उन्होंने अपने बयान में कहा कि उन्होंने आरएसएस छोड़ दिया था, क्योंकि हत्या के बाद संगठन मुश्किल में था, लेकिन वास्तव में उन्होंने कभी आरएसएस नहीं छोड़ा।”
गोडसे के अंतिम शब्द – Nathuram Godse Last Words
15 नवंबर 1949 को फांसी से पहले, नाथूराम गोडसे ने अपने कार्यों का बचाव करते हुए कहा कि उनकी कार्रवाई गांधी की नीतियों के खिलाफ थी, जो उनके अनुसार हिंदुओं और भारत के लिए हानिकारक थीं। उन्होंने विशेष रूप से गांधी के उपवासों और पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपये देने के निर्णय की आलोचना की। गोडसे का मानना था कि उनके कार्य राष्ट्र को गांधी की नीतियों के परिणामों से बचाने के लिए आवश्यक थे। उन्होंने यह भी कहा कि उन्हें अपने कार्यों का कोई पछतावा नहीं है और वे विश्वास करते हैं कि इतिहास उनके कार्यों को सही ठहराएगा।
कुछ स्रोतों के अनुसार, गोडसे के अंतिम शब्द “हे राम” थे, जो विडंबनापूर्ण है, क्योंकि यही शब्द गांधी ने अपनी मृत्यु के समय कहे थे। हालांकि, अन्य स्रोतों का दावा है कि गोडसे ने अपने अंतिम क्षणों में कुछ नहीं कहा।
गोडसे की छवि का पुनर्वास
गांधी की हत्या के बाद, नाथूराम गोडसे को व्यापक रूप से एक खलनायक के रूप में देखा गया। हालांकि, समय के साथ कुछ हिंदू राष्ट्रवादी समूहों ने उनकी छवि को पुनर्जनन करने के प्रयास किए। मराठी नाटक “मी नाथूराम गोडसे बोलतोय” (यह नाथूराम गोडसे बोल रहा है), जो गोपाल गोडसे की पुस्तक “मे इट प्लीज़ योर ऑनर” पर आधारित है, गोडसे के दृष्टिकोण से गांधी की हत्या और मुकदमे को प्रस्तुत करता है।
2014 में भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के सत्ता में आने के बाद, हिंदू महासभा ने गोडसे को देशभक्त के रूप में चित्रित करने के प्रयास शुरू किए। संगठन ने गोडसे की प्रतिमा स्थापित करने और 30 जनवरी को “शौर्य दिवस” के रूप में मनाने का प्रस्ताव रखा। 2015 में, हिंदू महासभा ने एक वृत्तचित्र फिल्म “देशभक्त नाथूराम गोडसे” बनाने की घोषणा की, जिसे गांधी की पुण्यतिथि पर रिलीज करने की योजना थी। इस फिल्म पर प्रतिबंध लगाने के लिए पुणे की एक अदालत में मुकदमा दायर किया गया।
मई 2019 में, भोपाल से बीजेपी उम्मीदवार प्रज्ञा ठाकुर ने गोडसे को “देशभक्त” कहा, जिसके बाद व्यापक विवाद हुआ। तीव्र प्रतिक्रिया के बाद, उन्होंने माफी मांगी। इसके अलावा, मेरठ शहर का नाम गोडसे के नाम पर रखने का प्रस्ताव भी सामने आया, जिसे जिला मजिस्ट्रेट ने खारिज कर दिया।
गोडसे का ऐतिहासिक प्रभाव
नाथूराम गोडसे का जीवन और उनके कार्य भारतीय इतिहास में एक जटिल और विवादास्पद अध्याय हैं। उनके विचार और कार्य हिंदू राष्ट्रवाद, धर्मनिरपेक्षता और भारत के विभाजन जैसे मुद्दों पर गहन चर्चा को जन्म देते हैं। गोडसे का मानना था कि वे हिंदू समुदाय और भारत की रक्षा कर रहे थे, लेकिन उनके कार्यों ने देश में हिंसा और विभाजन को बढ़ावा दिया।
गांधी की हत्या ने भारत के सामाजिक और राजनीतिक परिदृश्य को हमेशा के लिए बदल दिया। इसने हिंदू राष्ट्रवादी संगठनों पर सवाल उठाए और धर्मनिरपेक्षता के महत्व को रेखांकित किया। गोडसे के विचार आज भी कुछ समूहों में समर्थन पाते हैं, लेकिन अधिकांश भारतीय समाज गांधी के अहिंसा और एकता के सिद्धांतों को महत्व देता है।
निष्कर्ष: Biography of Nathuram Godse
नाथूराम गोडसे की जीवनी न केवल एक व्यक्ति की कहानी है, बल्कि उस समय के भारत के सामाजिक और राजनीतिक तनावों का भी प्रतिबिंब है। उनके कार्यों ने भारतीय इतिहास पर एक गहरी छाप छोड़ी, जो आज भी चर्चा और विवाद का विषय बनी हुई है। गोडसे का जीवन हमें यह समझने का अवसर देता है कि वैचारिक कट्टरता और हिंसा किस तरह एक समाज को प्रभावित कर सकती है। साथ ही, यह हमें गांधी के अहिंसा और समावेशी दृष्टिकोण की प्रासंगिकता को भी याद दिलाता है।